Journal of Advances in Developmental Research

E-ISSN: 0976-4844     Impact Factor: 9.71

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मध्यकालीन भारतीय समाज में जाति एवं धर्म का एक अध्ययन

Author(s) डॉ. रणजीत सिंह
Country India
Abstract मध्यकालीन भारत सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों का एक महत्वपूर्ण काल था, जिसमें जाति और धर्म ने भारतीय समाज की संरचना को गहराई से प्रभावित किया। इस दौरान हिंदू, इस्लाम, सूफीवाद, भक्ति आंदोलन और सिख धर्म जैसी विभिन्न धार्मिक प्रवृत्तियों का उदय हुआ, जिन्होंने जाति व्यवस्था को चुनौती दी या उसे मजबूत किया। मध्यकालीन भारतीय समाज एक जटिल और बहु-परत वाली संरचना थी, जिसे समझने के लिए जाति और वर्ग जैसी मूलभूत सामाजिक-आर्थिक श्रेणियों का विश्लेषण आवश्यक है। यह कालखंड, लगभग 8वीं शताब्दी ईस्वी से 18वीं शताब्दी ईस्वी तक फैला हुआ, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उथल-पुथल का गवाह रहा। सल्तनत काल, विजयनगर साम्राज्य और मुगल साम्राज्य जैसे शक्तिशाली राजवंशों के उदय ने सामाजिक संरचनाओं को प्रभावित किया, लेकिन जाति व्यवस्था की गहरी जड़ें बनी रहीं।
जाति व्यवस्था भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है, परंतु मध्यकालीन भारत में यह व्यवस्था और अधिक कठोर तथा जटिल हो गई। वर्णाश्रम धर्म के सिद्धांतों के आधार पर समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्गों में विभाजित था। इसके अतिरिक्त, उपजातियों की संख्या भी बढ़ती गई। इस काल में जन्म आधारित जातिगत भेदभाव समाज के हर क्षेत्र में व्याप्त था।
धर्म इस काल में एक अत्यंत प्रभावशाली सामाजिक बल के रूप में उभरा। हिंदू, मुस्लिम, जैन, बौद्ध, सिख आदि धर्मों की उपस्थिति और उनके अंतर्गत विभिन्न संप्रदायों ने भारतीय समाज को धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक विविध और जटिल बना दिया। भक्ति आंदोलन और सूफी परंपराएँ एक ओर तो सामाजिक समरसता और आध्यात्मिक लोकतंत्र का संदेश देती हैं, वहीं दूसरी ओर धार्मिक कट्टरता और राजनीतिक सत्ता की धार्मिक वैधता के लिए प्रयत्न भी इसी काल की वास्तविकताएँ हैं। यह शोध पत्र मध्यकालीन भारत में जाति और धर्म की भूमिका, उनके आपसी संबंध और समाज पर उनके प्रभाव का विश्लेषण करता है। यह शोध मध्यकालीन भारतीय समाज की सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता को समझने में एक महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करेगा।
मुख्य शब्द: मध्यकाल, जाति, धर्म, वर्ग, भक्ति आंदोलन, समाज, उपजातियाँ, परंपराएँ
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प्रस्तावना
किसी भी साहित्य को समझने के लिए उससे संबंधित उसकी जातीय परंपरा, राष्ट्रीय एवं सामाजिक वातावरण तथा सामाजिक परिस्थितियों का अध्ययन करना आवश्यक होता है। आदिकाल से लेकर आज तक के साहित्येतिहास में युग-बोध दिखाई देता है। उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक तथा धार्मिक परिस्थितियों का प्रभाव हमें साहित्य इतिहास में परिलक्षित होता है। संस्कृति के क्षेत्र में देश, धर्म और जातिगत आधार का विचार उपयुक्त नहीं है। मूलतः मानव-मात्र का सांस्कृतिक ज्ञान एक पूर्ण इकाई है। जो कुछ विभिन्नता दिखाई पड़ती है, वह अभिव्यक्ति के साधनों की सीमा और परिस्थितियों की विभिन्नता के कारण, परंपरा के विकास, सामाजिक परिवेष्टन के नवीन स्वरूप और अन्य संस्कृतियों के अंतरावलंबन के कारण सांस्कृतिक ज्ञान में अंतर आता है। एक ही समाज में विभिन्न स्वर होते हैं; समाज का वर्गीय विभाजन सांस्कृतिक स्वरूप की सीमा और अनुशासन है।
इस युग में ब्राह्मण और बौद्ध धर्म का नई दिशा में विस्तार हुआ। नवीन सिद्धांतों एवं धार्मिक क्रियाओं का समावेश हुआ। इन धर्मों के नए रूप समाज के सामने आए। जैन धर्म भी इस प्रगति से अप्रभावित न रह सका, यद्यपि इसमें परिवर्तन की गति धीमी रही। धार्मिक विचारों के विकास का एक प्रबल कारण तांत्रिक पूजा और उपासना का वेग है, जिसने बौद्ध धर्म के मूल रूप को ही बदल दिया। इन तांत्रिक विचारों ने ब्राह्मण धर्म के विभिन्न संप्रदायों में भी प्रवेश किया और उनके आधारभूत विचारों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। विभिन्न धार्मिक संप्रदायों ने एक-दूसरे को प्रभावित किया। वैष्णव और शैव धर्म की तरह बौद्ध और जैन धर्मों में ईश्वरवादी प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। बुद्ध और जिन देवता माने जाने लगे और उनकी मूर्तियों की पूजा मंदिरों में भक्तिमय गीतों से होने लगी। बुद्ध और जैन को विष्णु का अवतार माना जाने लगा।
यद्यपि इस समय भी समाज में ऐसे लोग थे जिन्होंने जाति-प्रथा की रूढ़ियों को मान्यता देने से इनकार कर दिया। ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के जैन आचार्यों, शक्ति-तांत्रिक संप्रदायों तथा चार्वाकों ने जाति-प्रथा तथा उसके प्रतिबंधों का विरोध करते हुए कर्म की महत्ता का प्रतिपादन किया। उन्होंने ब्राह्मणों की जातिगत श्रेष्ठता की भी खिल्ली उड़ाई। इस समय गुजरात तथा राजस्थान में जैन धर्म काफी लोकप्रिय था। जाति-संबंधी इसके विचार हिंदुओं की अपेक्षा अधिक उदार थे। जैन आचार्य अमितगति ने यह प्रतिपादित किया कि जाति का निर्धारण आचरण से होता है, जन्म या वंश से नहीं। बौद्ध ग्रंथों में भी जाति-पाँति एवं छुआछूत की निंदा की गई है।
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आलेख के उद्देश्य
• मध्यकालीन भारतीय समाज में धर्म की भूमिका का अध्ययन करना।
• मध्यकालीन भारत में जाति व्यवस्था का अध्ययन करना।
• मध्यकालीन भारत में सामाजिक व्यवस्था के स्वरूप का पता लगाना।
• धार्मिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों का अध्ययन करना।
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मध्यकालीन भारतीय जाति प्रणाली की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
जाति व्यवस्था की जड़ें वैदिक काल से ही चली आ रही हैं। प्रारंभिक वैदिक समाज में वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी, किंतु समय के साथ यह जन्म आधारित होती चली गई। मध्यकालीन भारत तक यह व्यवस्था कठोर सामाजिक संरचना में परिवर्तित हो चुकी थी, जिसमें जातीय भेदभाव, ऊँच-नीच और सामाजिक विषमता प्रमुख हो गई थी।
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मध्यकालीन भारत में जाति का स्वरूप
मध्यकाल में जाति व्यवस्था अधिक जटिल और अधिक विस्तृत हो गई थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र के अतिरिक्त अनेक उपजातियाँ और जातिगत विभाजन उभर कर सामने आए। व्यवसाय, खानपान, विवाह तथा सामाजिक व्यवहार जाति पर निर्भर हो गए। जातीय शुद्धता और छुआछूत जैसी अवधारणाएँ गहराई से समाज में समाहित हो चुकी थीं। मध्यकाल में कुछ समुदायों (जैसे राजपूत, कायस्थ) ने अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार किया। शिल्पकार और व्यापारी जातियों (जैसे कुम्हार, लोहार, तेली) का आर्थिक महत्व बढ़ गया था। अछूतों के साथ भेदभाव बना रहा, और उन्हें गाँवों से अलग बसाया जाता था।
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वर्ग संरचना
जाति और वर्ग दोनों शब्दों का प्रयोग सामाजिक रूप से बांटने के लिए होता है, लेकिन वर्ग प्रणाली आर्थिक तथा राजनैतिक आधार पर तय होती है। मध्यकालीन भारत में वर्गों का निर्धारण धन एवं संपत्ति, व्यापार, भूमि स्वामित्व और प्रशासनिक पदों के आधार पर होता था। शासक वर्ग, सामंत वर्ग, व्यापारी वर्ग, किसान वर्ग और मजदूर वर्ग प्रमुख वर्ग थे।
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जाति और वर्ग के बीच संबंध
आधारभूत रूप से देखा जाए तो जाति और वर्ग दो भिन्न अवधारणाएँ हैं, फिर भी मध्यकाल में इन दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध था। ऊँची जातियों के लोग प्रायः उच्च वर्गों में आते थे, जबकि निम्न जातियाँ निम्न आर्थिक वर्गों में सीमित रहती थीं। सामाजिक गतिशीलता सीमित थी और जातिगत पहचान अक्सर वर्ग स्थिति को निर्धारित करती थी। निम्न जाति के साथ भेदभाव देखा जाता था तथा हर कार्य में उनमें अंतर किया जाता था। यद्यपि वर्ग व्यवस्था में सैद्धांतिक रूप से गतिशीलता संभव थी, जाति व्यवस्था के कारण यह बहुत सीमित रही। एक निम्न जाति का व्यक्ति आर्थिक रूप से सफल हो सकता था, लेकिन उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा और विवाह संबंध अक्सर उसकी जाति से ही निर्धारित होते थे। मुस्लिम शासकों ने भारतीय समाज के साथ एक हद तक अनुकूलन किया। उन्होंने कुछ स्थानीय परंपराओं को अपनाया और हिंदू सामंतों व प्रशासकों को अपने शासन में शामिल किया, जिससे सत्ता का एक मिश्रित ढाँचा बना।
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सामाजिक गतिशीलता का अभाव
जाति व्यवस्था में सामाजिक गतिशीलता लगभग न के बराबर थी। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, वह जीवन भर उसी जाति का सदस्य रहता था, और इस स्थिति में बदलाव अत्यंत दुर्लभ था। हालाँकि, कुछ अपवाद भी थे जहाँ युद्ध या सत्ता परिवर्तन के कारण किसी छोटे समूह की स्थिति में आंशिक बदलाव आया। यद्यपि वर्ग व्यवस्था में सैद्धांतिक रूप से गतिशीलता संभव थी, जाति व्यवस्था की कठोरता के कारण यह बहुत सीमित रही। एक निम्न जाति का व्यक्ति आर्थिक रूप से सफल हो सकता था, लेकिन उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा और वैवाहिक संबंध अक्सर उसकी जाति से ही निर्धारित होते थे।
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सांस्कृतिक मिश्रण और स्थानीयकरण
मुस्लिम शासकों ने भारतीय समाज के साथ एक हद तक अनुकूलन किया। उन्होंने कुछ स्थानीय परंपराओं को अपनाया और हिंदू सामंतों व प्रशासकों को अपने शासन में शामिल किया, जिससे सत्ता का एक मिश्रित ढाँचा बना।
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भक्ति आंदोलन और जाति व्यवस्था
भक्ति आंदोलन ने जाति व्यवस्था की कठोरता को चुनौती दी। संत कबीर, गुरु नानक, रैदास, चैतन्य महाप्रभु आदि संतों ने जातिवाद का विरोध किया और समता तथा भक्ति पर बल दिया। इन आंदोलनों ने निम्न जातियों को आध्यात्मिक समानता का अनुभव कराया, यद्यपि सामाजिक संरचना में मूलभूत परिवर्तन नहीं आया।
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मुस्लिम शासन और सामाजिक संरचना
मध्यकाल में मुस्लिम शासन की स्थापना से भारतीय समाज में नई सामाजिक और वर्गीय संरचनाओं का उदय हुआ। मुसलमानों में भी शासक वर्ग, उलेमा वर्ग, व्यापारी वर्ग और श्रमिक वर्ग थे। हिंदू समाज में जातिगत व्यवस्था यथावत रही, किंतु नई प्रशासनिक और राजस्व प्रणालियों ने वर्गीय विभाजन को और अधिक जटिल बना दिया।
• प्रशासक और सैन्य कुलीन वर्ग: इसमें सुल्तान, अमीर, मनसबदार (मुगल), और सैन्य कमांडर शामिल थे। ये अक्सर मध्य एशियाई, ईरानी या अफगान मूल के होते थे, हालाँकि समय के साथ भारतीय मुसलमान भी इस प्रभावशाली वर्ग में शामिल हुए। उनके पास असीमित राजनीतिक शक्ति, सैन्य नियंत्रण और राज्य के संसाधनों पर पूर्ण अधिकार था। यह वर्ग अपनी भव्य जीवन शैली और शाही दरबारों के लिए विख्यात था।
• धार्मिक और विद्वान वर्ग: इस्लामी न्यायविदों, धार्मिक विद्वानों, काज़ी और सूफी संतों ने इस वर्ग का निर्माण किया। उलेमा का समाज में अत्यधिक नैतिक और सामाजिक प्रभाव था, क्योंकि वे इस्लामी कानूनों (शरिया) की व्याख्या करते थे और शासकों को धार्मिक मामलों पर परामर्श देते थे। उन्हें अक्सर राज्य से भूमि अनुदान और वित्तीय सहायता प्राप्त होती थी, जिससे वे आर्थिक रूप से भी सुदृढ़ थे।
• व्यापारी और शहरी वर्ग: मुस्लिम शासन के प्रोत्साहन से व्यापार और वाणिज्य में अभूतपूर्व वृद्धि हुई, जिससे एक समृद्ध मुस्लिम व्यापारी वर्ग का उदय हुआ। ये व्यापारी स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार दोनों में सक्रिय थे, विशेष रूप से समुद्री मार्गों से। शहरों के विकास में इनकी भूमिका केंद्रीय थी। इसके अतिरिक्त, कई कुशल कारीगर और दस्तकार भी शहरी केंद्रों में रहते थे।
• पेशेवर और प्रशासनिक वर्ग: राज्य के सुचारू संचालन के लिए मुंशी, लेखक, चिकित्सक और विभिन्न प्रशासनिक अधिकारी जैसे पेशेवरों की आवश्यकता थी। इस वर्ग में हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल थे, जो अपनी विशेषज्ञता के आधार पर शाही और स्थानीय प्रशासनिक सेवाओं में कार्यरत थे।
• श्रमजीवी और निम्न वर्ग: इसमें कृषि मजदूर, छोटे कारीगर, सेवक और शहरों में दैनिक वेतन भोगी शामिल थे। यह समाज का सबसे बड़ा और सबसे निर्धन तबका था, जिसे अक्सर चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में जीवन यापन करना पड़ता था। इस वर्ग में धर्मांतरित मुसलमान और मूल हिंदू दोनों शामिल थे।
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हिंदू समाज और जातिगत व्यवस्था पर प्रभाव
मुस्लिम शासन की उपस्थिति के बावजूद, हिंदू समाज में जाति व्यवस्था अपनी मूल विशेषताओं के साथ बनी रही। हालाँकि, नई राजनीतिक और आर्थिक वास्तविकताओं ने हिंदू समाज के भीतर कुछ वर्गीय समायोजनों को प्रेरित किया। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के पारंपरिक विभाजन कायम रहे, और जातियों के भीतर विवाह की प्रथा भी जारी रही। फिर भी, मुस्लिम शासन के कुछ परोक्ष प्रभाव भी दिखाई दिए।
• प्रशासनिक और वित्तीय सुधार: मुस्लिम शासकों ने एक सुव्यवस्थित प्रशासन और नई राजस्व प्रणालियाँ जैसे जागीरदारी और इक्तादारी लागू कीं। इन सुधारों ने भूमि स्वामित्व और संबंधित अधिकारों को पुनः परिभाषित किया, जिससे हिंदू समाज के भीतर भी वर्गीय विभाजन और अधिक जटिल हो गए। उदाहरण के लिए, कुछ हिंदू ज़मींदार और कर संग्राहक, जैसे चौधरी और कानूनगो, मुस्लिम प्रशासन के साथ मिलकर एक नया प्रभावशाली वर्ग बन गए।
• कुछ जातियों की बदलती स्थिति: कुछ जातियों ने मुस्लिम शासकों के अधीन नई भूमिकाएँ अपनाईं। जैसे, कुछ लड़ाकू जातियाँ मुस्लिम सेनाओं में शामिल हुईं, जबकि कुछ ने प्रशासनिक पदों पर कार्यभार संभाला।
• धार्मिक-सांस्कृतिक अंतःक्रिया: सूफीवाद और भक्ति आंदोलन के विकास ने कुछ हद तक धार्मिक सहिष्णुता और सद्भाव को बढ़ावा दिया, हालाँकि जाति व्यवस्था की अंतर्निहित संरचना पर इसका सीधा और व्यापक प्रभाव सीमित रहा।
• व्यापार और शहरीकरण: शहरी केंद्रों के विकास ने हिंदू व्यापारियों (जैसे मारवाड़ी, खत्री) और कारीगरों के लिए नए अवसर पैदा किए। वे मुस्लिम व्यापारी वर्ग के साथ मिलकर काम करते थे, जिससे एक एकीकृत आर्थिक वर्ग का विकास हुआ।
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निष्कर्ष
मध्यकालीन भारत का समाज एक जटिल और निरंतर विकसित होने वाली इकाई था, जहाँ जाति व्यवस्था अपनी गहरी जड़ों के साथ दृढ़ता से कायम रही, वहीं नए वर्गीय विभाजन भी उभरे। मुस्लिम शासन के आगमन ने विशेष रूप से एक नए राजनीतिक और सैन्य अभिजात वर्ग, एक धार्मिक वर्ग, और व्यापारी वर्ग को जन्म दिया। ये नए वर्ग भारतीय सामाजिक पदानुक्रम में समायोजित हुए, कभी जाति व्यवस्था के साथ मिलकर, तो कभी उसके समानांतर चलकर।
इस अवधि में, जाति ने सामाजिक स्तरीकरण का प्राथमिक आधार प्रदान किया, जिसने व्यक्ति की सामाजिक स्थिति, व्यवसाय और वैवाहिक संबंधों को नियंत्रित किया। वहीं, वर्गीय संरचनाएं आर्थिक शक्ति, राजनीतिक प्रभुत्व और व्यक्तिगत गुणों से अधिक निर्धारित होती थीं, हालांकि जाति अक्सर इन वर्गीय स्थितियों को प्रभावित करती थी। मध्यकालीन भारतीय समाज में जाति और वर्ग का यह जटिल अंतर्संबंध ही उस युग के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य की पहचान बना, जिसकी प्रतिध्वनि आज भी भारतीय समाज में देखी जा सकती है। यह अध्ययन दर्शाता है कि मध्यकालीन भारत एक स्थिर समाज नहीं था, बल्कि निरंतर अनुकूलन और परिवर्तन की प्रक्रिया में था, जहाँ प्राचीन परंपराएँ नई वास्तविकताओं के साथ सह-अस्तित्व में थीं।
यह अध्ययन वर्तमान समय में भी प्रासंगिक है, क्योंकि आज भी भारतीय समाज जाति और वर्ग से प्रभावित है। अतः इतिहास से सीख लेकर हमें एक समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज की दिशा में अग्रसर होना चाहिए।
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संदर्भ
1. शर्मा, राम शरण – "प्राचीन भारत में सामाजिक और आर्थिक संरचना"
2. चंद्र, सतीश – "मध्यकालीन भारत का इतिहास"
3. ओमप्रकाश, एस. – "भारतीय समाज का विकास"
4. जोशी, एल.एल. – "भक्ति आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन"
5. सरकार, सुमित – "भारत में जाति और वर्ग"
6. जैक्सन, पीटर. दिल्ली सल्तनत: एक राजनीतिक और सैन्य इतिहास. कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1999.
7. ईटन, रिचर्ड एम. फारसी युग में भारत: 1000-1765. कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय प्रेस, 2019.
8. शर्मा, आर.एस. प्राचीन भारत में शूद्र. मोतीलाल बनारसीदास, 1990.
Keywords .
Field Arts
Published In Volume 16, Issue 1, January-June 2025
Published On 2025-05-08
Cite This मध्यकालीन भारतीय समाज में जाति एवं धर्म का एक अध्ययन - डॉ. रणजीत सिंह - IJAIDR Volume 16, Issue 1, January-June 2025.

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