
Journal of Advances in Developmental Research
E-ISSN: 0976-4844
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Impact Factor: 9.71
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Volume 16 Issue 2
2025
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भरतपुर राजवंश के राजनीति से संस्कृति तक के बहुआयामों का अध्ययन
Author(s) | Mohan Singh |
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Country | India |
Abstract | भरतपुर राजवंश, जिसे जाट शासकों द्वारा स्थापित किया गया, भारतीय इतिहास में विशेषकर 18वीं और 19वीं शताब्दी में एक अद्वितीय राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इकाई के रूप में उभरा। यह राजवंश न केवल राजस्थान की सीमाओं तक सीमित रहा, बल्कि उसने दिल्ली, आगरा, ब्रजभूमि और मथुरा जैसे क्षेत्रों में भी अपना प्रभाव स्थापित किया। भरतपुर की स्थापना ऐसे समय में हुई जब मुगल साम्राज्य का पतन हो रहा था और भारत में राजनीतिक अस्थिरता व्याप्त थी। इस संदर्भ में, भरतपुर राज्य का उदय केवल एक नए क्षेत्रीय शक्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक नये राजनीतिक आदर्श और स्वाभिमानी जाट नेतृत्व के रूप में देखा गया। जाट समुदाय, जो मूलतः कृषक जीवन से जुड़ा हुआ था, उसने भरतपुर के माध्यम से एक संगठित और आत्मनिर्भर राज्य की परिकल्पना को साकार किया। महाराजा सूरजमल जैसे कुशल और साहसी शासकों ने इस राज्य को केवल सैन्य बल पर नहीं, बल्कि प्रशासनिक कुशलता, न्यायप्रियता और सांस्कृतिक समन्वय की भावना पर आधारित शासन प्रणाली दी। सूरजमल द्वारा दिल्ली पर किया गया अभियान और उनकी दूरदर्शिता यह दर्शाती है कि भरतपुर एक सामान्य रियासत नहीं, बल्कि एक वैकल्पिक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा था। इस राजवंश का महत्व केवल उसकी सैनिक उपलब्धियों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसके शासकों ने स्थापत्य कला, धार्मिक सहिष्णुता, जनकल्याणकारी योजनाओं, तथा सांस्कृतिक संरक्षण में भी अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दिया। डीग के महलों, फव्वारों की बाग़ों और लोहागढ़ के अभेद्य किले में इसकी स्पष्ट झलक मिलती है। भरतपुर राजाओं ने न केवल हिंदू धर्म की परंपराओं का पालन किया बल्कि ब्रज संस्कृति, वैष्णव भक्ति परंपरा और स्थानीय लोककलाओं को भी संरक्षण प्रदान किया। औपनिवेशिक काल में जब अधिकांश रियासतें ब्रिटिश सत्ता के आगे झुक गई थीं, तब भरतपुर ने न केवल लोहागढ़ युद्ध (1805) में ब्रिटिश सेना को पराजित किया, बल्कि यह सिद्ध किया कि भारतीय शक्ति और संगठन यदि सुदृढ़ हो तो विदेशी शासन का प्रतिरोध संभव है। यह आत्मबल और संकल्प भरतपुर को अन्य समकालीन रियासतों से अलग बनाता है। यह शोध-पत्र भरतपुर राजवंश की उसी बहुआयामी विरासत को सामने लाने का प्रयास है, जिसमें राजनीति, संस्कृति, समाज और स्थापत्य का एक समन्वित और प्रगतिशील स्वरूप निहित है। यह अध्ययन हमें इस बात की समझ भी प्रदान करता है कि भरतपुर राजवंश केवल क्षेत्रीय शक्ति नहीं था, बल्कि भारतीय इतिहास में एक आदर्श, प्रेरणा और राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक भी रहा है। 2. शोध उद्देश्य (Objectives of the Study) 1. भरतपुर राजवंश की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और राजनीतिक योगदान को समझना। 2. सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में भरतपुर राजाओं की भूमिका का विश्लेषण करना। 3. स्थापत्य एवं कला के क्षेत्र में भरतपुर राजवंश के योगदान का अध्ययन करना। 4. औपनिवेशिक शक्तियों के साथ उनके संबंधों और संघर्षों की व्याख्या करना। 5. भरतपुर राजवंश की वर्तमान प्रासंगिकता और विरासत का मूल्यांकन करना। 3. शोध पद्धति (Research Methodology) यह शोध गुणात्मक (Qualitative) पद्धति पर आधारित है। शोध में ऐतिहासिक स्रोतों, अभिलेखों, ब्रिटिश गजेटियर, समकालीन यात्रियों के वृत्तांतों, स्थापत्य स्थलों के फील्ड अध्ययन और माध्यमिक साहित्य जैसे पुस्तकें, शोध-पत्र और शोध प्रबंधों का विश्लेषण किया गया है। तुलनात्मक विश्लेषण के माध्यम से भरतपुर को समकालीन रियासतों के परिप्रेक्ष्य में भी देखा गया है। 4. भरतपुर राजवंश की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भरतपुर राज्य की स्थापना 1722 ईस्वी में महाराजा बदन सिंह ने की, जिन्होंने ब्रज क्षेत्र में जाट सत्ता की आधारशिला रखी। यद्यपि बदन सिंह ने राज्य को एक संगठनात्मक स्वरूप प्रदान किया, परंतु इसे वास्तविक शक्ति और प्रतिष्ठा प्रदान करने का कार्य उनके उत्तराधिकारी महाराजा सूरजमल ने किया। महाराजा सूरजमल (1755–1763) ने अपनी असाधारण राजनीतिक दूरदर्शिता, सैन्य क्षमता और प्रशासनिक दक्षता के बल पर भरतपुर को न केवल एक स्वायत्त रियासत के रूप में विकसित किया, बल्कि इसे एक सुदृढ़ और प्रभावशाली शक्ति भी बना दिया। सूरजमल को “राजा-राजेश्वर” और “जाटों का नापोलियन” जैसे सम्मानजनक उपाधियों से नवाज़ा गया, क्योंकि उन्होंने दिल्ली और आगरा जैसी सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में हस्तक्षेप कर मुगलों की क्षीण होती सत्ता को चुनौती दी। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि उन्होंने भरतपुर को एक ऐसे राज्य में परिवर्तित कर दिया जो न केवल राजनीतिक दृष्टि से सशक्त था, बल्कि आर्थिक रूप से समृद्ध, प्रशासनिक रूप से संगठित और सांस्कृतिक रूप से जीवंत था। उनकी राजधानी लोहागढ़ का किला अपनी अभेद्यता के लिए प्रसिद्ध था — इसे कभी भी कोई विदेशी शक्ति जीत नहीं सकी। सूरजमल के नेतृत्व ने भरतपुर को मुगलों, मराठों और अंग्रेजों के विरुद्ध एक प्रभावशाली और संगठित शक्ति के रूप में स्थापित किया। 5 राजनीतिक दृष्टि से भरतपुर की भूमिका 18वीं और 19वीं शताब्दी में जब भारत राजनीतिक विखंडन और विदेशी हस्तक्षेपों के दौर से गुजर रहा था, तब भरतपुर ने एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और रणनीतिक रूप से सक्षम रियासत के रूप में अपनी पहचान बनाई। महाराजा सूरजमल की दिल्ली पर चढ़ाई और उसके बाद की घटनाओं ने जाटों को एक शक्तिशाली राजनीतिक इकाई के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने न केवल अपने क्षेत्र की सीमाओं की रक्षा की, बल्कि उत्तर भारत में सत्ता संतुलन को प्रभावित करने की क्षमता भी प्रदर्शित की। 1805 में लार्ड लेक के नेतृत्व में अंग्रेजों ने जब लोहागढ़ किले को घेर लिया, तब भरतपुर की सैन्य रणनीति ने उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया। यह घटना ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक अप्रत्याशित पराजय थी और इससे भरतपुर की ताकत का अंदाजा लगा। इसके बावजूद, भरतपुर ने राजनीतिक दृष्टि से संतुलन बनाए रखा। उसने एक ओर अंग्रेजों से संघर्ष किया, तो दूसरी ओर समयानुसार कूटनीतिक समझौतों के माध्यम से अपनी आंतरिक स्वायत्तता को सुरक्षित रखा। इस प्रकार भरतपुर का राजनीतिक व्यवहार परिपक्व, व्यावहारिक और दूरदर्शितापूर्ण था। सांस्कृतिक और सामाजिक योगदान भरतपुर राजवंश ने न केवल राजनीतिक और सैन्य क्षेत्र में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर भी एक गहरी और सजीव छाप छोड़ी। भरतपुर के शासक सांस्कृतिक चेतना से युक्त शासक थे, जिन्होंने ब्रज क्षेत्र की लोकसंस्कृति, धार्मिक परंपराओं, संगीत, साहित्य और स्थापत्य कलाओं को राजकीय संरक्षण प्रदान किया। इस क्षेत्र में ब्रज भाषा, जो कि कृष्ण भक्ति, रसिक साहित्य और जनगीतों की जीवंत भाषा रही है, को भरतपुर दरबार से नया जीवन और सम्मान प्राप्त हुआ। जाट संस्कृति और ब्रज परंपरा का यह समन्वय भरतपुर को एक अनूठी सांस्कृतिक पहचान प्रदान करता है। राज्य की धार्मिक नीति अत्यंत उदार और समावेशी रही। भरतपुर के शासकों ने हिन्दू धर्म के विभिन्न संप्रदायों — विशेषतः वैष्णव, रामानंदी और सखी संप्रदाय — को प्रश्रय दिया, वहीं अन्य धर्मों और उनके अनुयायियों के प्रति भी सहिष्णुता का व्यवहार किया। यह पंथनिरपेक्ष दृष्टिकोण भरतपुर की सामाजिक समरसता और विविधता को पुष्ट करता था। गोवर्धन, डीग, कुम्हेर और लोहागढ़ जैसे स्थान धार्मिक, सांस्कृतिक और स्थापत्य दृष्टि से समृद्ध केंद्र बनकर उभरे, जहाँ मंदिर, कुएँ, छतरियाँ, बावड़ियाँ और धर्मशालाएँ समाज के सामाजिक जीवन और धार्मिक आस्था का अभिन्न अंग बनीं। जनकल्याण की दृष्टि से भरतपुर शासकों ने शिक्षा, जल-प्रबंधन, धर्मशालाओं और चिकित्सा के क्षेत्र में भी योगदान दिया। लोकजीवन में व्याप्त धार्मिक आस्था, सांस्कृतिक आयोजनों और सामाजिक रीति-रिवाजों को संरक्षित और प्रोत्साहित करने का कार्य भरतपुर दरबार ने कुशलतापूर्वक किया। उनके प्रयासों से भरतपुर राज्य केवल एक प्रशासनिक इकाई नहीं रहा, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक समुदाय बन गया जिसने अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित की। स्थापत्य और वास्तुकला में योगदान भरतपुर राजवंश की स्थापत्य परंपरा उसकी सौंदर्यप्रियता, सैन्य दूरदर्शिता और कलात्मक रुचि की सजीव अभिव्यक्ति है। इस क्षेत्र में सबसे प्रमुख स्थापत्य धरोहर लोहागढ़ किला है, जो अपनी अभेद्य बनावट और सैन्य रणनीतिकता के लिए प्रसिद्ध है। इसे 'अजेय किला' भी कहा जाता है क्योंकि अंग्रेजों जैसे सशक्त सैन्यबल भी इसे जीत नहीं सके। यह किला केवल सैनिक सुरक्षा का प्रतीक नहीं था, बल्कि जाट स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता और साहस का भौतिक प्रतीक भी बन गया। डीग महल भरतपुर की स्थापत्य कला का दूसरा प्रमुख उदाहरण है, जो अपनी भव्यता, बाग-बगीचों, जलफव्वारों, और महलों के लिए प्रसिद्ध है। इस महल में मुगल, राजस्थानी और यूरोपीय स्थापत्य शैलियों का अनूठा संगम देखा जा सकता है। फ्रांसीसी और मुगल शैली में निर्मित इसके उद्यान, जलनिकाय और रंगमहलों ने भरतपुर को राजस्थान की विशिष्ट स्थापत्य पहचान प्रदान की। डीग के महलों की खिड़कियाँ, झरोखे, रंगमहल और गुलाबी रंग की दीवारें भरतपुर की कलात्मक संवेदनशीलता और स्थापत्य सौंदर्यबोध को रेखांकित करती हैं। स्थापत्य का यह विकास केवल शाही महलों तक सीमित नहीं था, बल्कि मंदिरों, छतरियों, सरोवरों, दरबार हॉलों और किलेबंद गांवों तक फैला हुआ था। भरतपुर की स्थापत्य शैली ने स्थानीय कारीगरों को संरक्षित किया और उन्हें नए सृजन की प्रेरणा दी। आज भी भरतपुर आने वाले पर्यटक लोहागढ़ किले और डीग महल के स्थापत्य वैभव को देखकर इस रियासत की गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत से परिचित होते हैं। इस प्रकार, भरतपुर का स्थापत्य योगदान केवल ईंट-पत्थर की संरचनाओं का नहीं, बल्कि यह जाट अस्मिता, सांस्कृतिक गौरव और ऐतिहासिक चेतना का जीवन्त दस्तावेज है। औपनिवेशिक शक्तियों के साथ संबंध भरतपुर और ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के संबंधों में संघर्ष और समझौते दोनों की प्रमुख भूमिका रही है। यह रियासत उन चुनिंदा भारतीय राज्यों में से एक थी जिसने प्रारंभ में अंग्रेजों का सक्रिय सैन्य प्रतिरोध किया और बाद में कूटनीतिक युक्ति से अपनी राजनीतिक अस्मिता को भी बनाए रखा। 1805 का युद्ध, जब अंग्रेजों ने भरतपुर के प्रसिद्ध लोहागढ़ किले को घेर लिया था, इतिहास में इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह ब्रिटिश सेना की एक ऐसी असफलता थी, जिसने भरतपुर की सैन्य दक्षता और रणनीतिक शक्ति को स्थापित किया। इसके पश्चात 1826 में पुनः भरतपुर पर अंग्रेजों ने आक्रमण किया और इस बार वे सफल रहे, किंतु भरतपुर ने शीघ्र ही उनके साथ संधि कर प्रशासकीय स्वायत्तता बनाए रखी। यह समझौता भरतपुर की राजनैतिक दूरदर्शिता को दर्शाता है। जबकि अनेक भारतीय रियासतें पूरी तरह ब्रिटिश अधीनता स्वीकार कर चुकी थीं, भरतपुर ने अपनी सीमाओं के भीतर शासन संबंधी स्वतंत्रता और सांस्कृतिक संरचनाओं को सुरक्षित रखने का प्रयास किया। इस सहयोग और संतुलन की नीति ने भरतपुर को एक सम्मानित रियासत के रूप में स्थापित किया जो अपनी सैन्य, सांस्कृतिक और प्रशासनिक अस्मिता को बनाए रखने में सफल रही। इसके अलावा, भरतपुर के शासकों ने ब्रिटिश शासनकाल में भी लोककल्याण, स्थापत्य और सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करते हुए सामाजिक स्थिरता बनाए रखी वर्तमान में भरतपुर राजवंश की विरासत आज का भरतपुर केवल अतीत की गाथाओं का स्मारक नहीं है, बल्कि यह राजस्थान और भारत की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिक धरोहर का जीवंत प्रतीक है। भरतपुर की विरासत अनेक स्तरों पर दृष्टिगोचर होती है — स्थापत्य, पारंपरिक संस्कृति, पर्यावरणीय संरक्षण और पर्यटन के रूप में। भरतपुर का 'लोहागढ़ किला' आज भी विजित न होने की अपनी ऐतिहासिक प्रतिष्ठा को सँजोए खड़ा है, जहाँ भरतपुर राजवंश की अस्मिता और साहस की गाथाएँ दीवारों में अंकित हैं। 'डीग पैलेस', अपनी भव्यता, राजसी उद्यानों और जलविन्यास के लिए विख्यात है, जो भरतपुर की स्थापत्य कला के उत्कर्ष को प्रकट करता है। ये दोनों स्थल भरतपुर की सांस्कृतिक आत्मा को आज भी जीवित रखते हैं और राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं। 'केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी विहार' (पूर्व नाम — भरतपुर पक्षी अभयारण्य), यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया जा चुका है और यह भरतपुर की पर्यावरणीय चेतना तथा संरक्षण नीति का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह अभयारण्य न केवल जैव विविधता का केंद्र है, बल्कि यह पर्यटन, अध्ययन और अनुसंधान की दृष्टि से भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थल बन चुका है। वर्तमान भरतपुर की सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान में जाट परंपरा, ब्रज संस्कृति, मंदिरों, मेले-त्योहारों और स्थापत्य धरोहरों की विशिष्ट भूमिका है। भरतपुर राजवंश की यह विरासत आज भी लोकसंस्कृति, पर्यटन विकास, और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के माध्यम से आगे बढ़ रही है। प्रशासन और स्थानीय समाज के प्रयासों से इन धरोहरों का संरक्षण किया जा रहा है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भरतपुर के गौरवशाली अतीत से प्रेरणा ले सकें। इस प्रकार, भरतपुर राजवंश की विरासत न केवल इतिहास का अध्याय है, बल्कि वह आज के भारत में सांस्कृतिक चेतना, सामुदायिक गौरव और आत्मपरिचय का एक सजीव स्रोत है। निष्कर्ष (Conclusion) भरतपुर राजवंश का इतिहास केवल एक क्षेत्रीय सत्ता की कहानी नहीं है, बल्कि यह भारतीय उपमहाद्वीप में एक स्वाभिमानी, सशक्त और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध सत्ता के निर्माण की गाथा है। जाट समुदाय द्वारा स्थापित यह रियासत ऐसे समय में उभरी जब भारत राजनीतिक अस्थिरता, मुगल साम्राज्य के पतन और औपनिवेशिक ताक़तों के प्रसार के दौर से गुजर रहा था। इस पृष्ठभूमि में भरतपुर ने जिस प्रकार अपनी पहचान को निर्मित और संरक्षित किया, वह न केवल उसकी सैन्य शक्ति का प्रमाण है, बल्कि उसकी गहन राजनीतिक समझ और सांस्कृतिक चेतना का भी परिचायक है। महाराजा सूरजमल जैसे नेतृत्वकर्ता ने न केवल राजनीतिक चातुर्य दिखाया बल्कि धार्मिक सहिष्णुता, लोकसंस्कृति का संवर्धन और जनकल्याण को भी शासन की प्राथमिकता में रखा। भरतपुर की स्थापत्य कला, विशेषतः लोहागढ़ किले और डीग महलों के माध्यम से, उस युग की स्थापत्य दृष्टि, सुरक्षा व्यवस्था और कला-संवेदना को उजागर करती है। ब्रज संस्कृति, धार्मिक विविधता और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने में भरतपुर राजाओं की भूमिका विशेष उल्लेखनीय रही। उन्होंने जाट, ब्राह्मण, वैश्य, और अन्य वर्गों को एक सशक्त सामाजिक ढांचे में एकीकृत करने का प्रयास किया। भरतपुर ने भारत में प्रांतीय शक्तियों की राजनीतिक संभावनाओं को भी रेखांकित किया और यह दर्शाया कि केंद्र के क्षय होते प्रभुत्व के बीच स्थानीय ताक़तें भी सशक्त, संगठित और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध हो सकती हैं। औपनिवेशिक शक्तियों के साथ संघर्ष और बाद में यथासमय समझौतों के माध्यम से अपनी राजनीतिक स्वायत्तता बनाए रखना भरतपुर की राजनीतिक व्यावहारिकता को दर्शाता है। इसने यह दिखाया कि राष्ट्रीय हितों और क्षेत्रीय स्वाभिमान के बीच संतुलन संभव है। आज जब हम भरतपुर को ऐतिहासिक, स्थापत्य और पर्यावरणीय दृष्टि से देखते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि इसकी धरोहर आज भी भारतीय इतिहास और संस्कृति की एक अमूल्य पूंजी के रूप में जीवित है। इस शोध-पत्र के माध्यम से यह निष्कर्ष स्पष्ट होता है कि भरतपुर राजवंश केवल एक सैन्य और राजनीतिक सत्ता नहीं था, बल्कि यह एक व्यापक सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक संगठन और स्थापत्य सौंदर्य का प्रतिनिधित्व करता था। इसकी विरासत न केवल इतिहास के पन्नों में सुरक्षित है, बल्कि वह वर्तमान में भी भारतीय पहचान और स्वाभिमान का एक प्रेरणादायक स्रोत बनी हुई है। 10. संदर्भ सूची (References) 1. 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Keywords | . |
Field | Arts |
Published In | Volume 16, Issue 2, July-December 2025 |
Published On | 2025-07-04 |
Cite This | भरतपुर राजवंश के राजनीति से संस्कृति तक के बहुआयामों का अध्ययन - Mohan Singh - IJAIDR Volume 16, Issue 2, July-December 2025. |
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