Journal of Advances in Developmental Research

E-ISSN: 0976-4844     Impact Factor: 9.71

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महात्मा गांधी के अहिंसा के दर्शन का ऐतिहासिक अध्ययन

Author(s) Aravind
Country India
Abstract महात्मा गांधी का अहिंसा का सिद्धांत केवल एक राजनीतिक रणनीति नहीं, बल्कि एक गहन आध्यात्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक दर्शन है, जिसकी जड़ें भारतीय जीवनदृष्टि की प्राचीन परंपराओं में गहराई से समाई हुई हैं। "अहिंसा परमो धर्मः" का उद्घोष भारतीय चिंतन की आत्मा रहा है, किंतु गांधीजी ने इसे केवल धार्मिक वाक्य नहीं रहने दिया, बल्कि उसे व्यावहारिक रूप में सामाजिक और राजनीतिक जीवन का आधार बनाया। उनके लिए अहिंसा कोई निष्क्रिय सहिष्णुता नहीं, बल्कि सक्रिय आत्मबल, नैतिक साहस और जनशक्ति के साथ अन्याय का प्रतिकार करने का सशक्त साधन थी। गांधीजी का अहिंसा-दर्शन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नैतिक अधिष्ठान बना, जिसने औपनिवेशिक हिंसा और दमन के विरुद्ध एक ऐसी लड़ाई की रूपरेखा प्रस्तुत की जिसमें गोली और तलवार की जगह सत्य, आत्मसंयम और जनचेतना को हथियार बनाया गया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि केवल अहिंसा के माध्यम से भी सामाजिक क्रांति संभव है — चाहे वह अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हो, छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध, या स्त्री-पुरुष समानता जैसे सुधारात्मक आंदोलनों के संदर्भ में।
गांधीजी के अहिंसक संघर्ष का वैश्विक प्रभाव भी अद्वितीय रहा। उनकी नीति और दृष्टिकोण ने न केवल भारत को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया, बल्कि अफ्रीका, अमेरिका और एशिया में अनेक संघर्षशील नेताओं को भी प्रेरित किया, जिनमें मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला और आंग सान सू ची प्रमुख हैं।
इस शोध पत्र में महात्मा गांधी के अहिंसा-दर्शन का एक समग्र ऐतिहासिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है, जिसमें उसके दार्शनिक मूलों, ऐतिहासिक विकास, सामाजिक प्रयोग, और आज की वैश्विक परिस्थितियों में उसकी प्रासंगिकता पर विचार किया गया है। यह अध्ययन यह स्पष्ट करने का प्रयास करता है कि गांधीजी का अहिंसा-दर्शन केवल अतीत की घटना नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की सामाजिक चुनौतियों का संभावित समाधान है।
इस शोध का उद्देश्य महात्मा गांधी के जीवन और चिंतन में अहिंसा की केंद्रीयता को रेखांकित करना है और यह समझना है कि कैसे उन्होंने इस सिद्धांत को एक नैतिक दर्शन से उठाकर राजनीतिक क्रांति का माध्यम बना दिया। यह प्रस्तावना हमें गांधी के दर्शन की उस यात्रा की ओर ले जाती है, जहाँ न्याय का मार्ग संघर्ष से होकर नहीं, बल्कि करुणा, संयम और सत्य के साहस से होकर गुजरता है।
2. शोध उद्देश्य (Objectives of the Study)
महात्मा गांधी के अहिंसा-दर्शन का अध्ययन केवल एक विचारधारा का विश्लेषण भर नहीं है, बल्कि यह उस दर्शन को समझने का प्रयास है, जिसने भारत की आज़ादी की लड़ाई को एक नैतिक आंदोलन का रूप दिया और जिसने समूचे विश्व को यह दिखाया कि नैतिक बल और आत्मसंयम के माध्यम से भी व्यापक परिवर्तन संभव है। इस शोध का मूल उद्देश्य गांधीजी की अहिंसा नीति की वैचारिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक और सामाजिक परतों को उजागर करना है, ताकि इसके गूढ़ अर्थों और प्रभावों को समग्र रूप से समझा जा सके।
इस अध्ययन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
1. गांधीजी के अहिंसा-दर्शन की वैचारिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करना: यह उद्देश्य गांधीजी के चिंतन में अहिंसा की उत्पत्ति और उसकी जड़ों को खोजने का प्रयास करता है। इसमें यह विश्लेषण किया जाएगा कि उन्होंने किन दार्शनिक, धार्मिक और नैतिक स्रोतों से प्रेरणा ली — विशेषतः भारतीय परंपरा में बौद्ध, जैन और वैदिक साहित्य से। यह अध्ययन यह स्पष्ट करेगा कि गांधीजी के लिए अहिंसा कोई आयातित या नवाचार विचार नहीं था, बल्कि भारतीय चिंतन की निरंतरता का आधुनिक रूप था।
2. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहिंसा के प्रयोग का ऐतिहासिक विश्लेषण करना: इस उद्देश्य के अंतर्गत उन ऐतिहासिक आंदोलनों का विश्लेषण किया जाएगा जहाँ गांधीजी ने अहिंसा को प्रतिरोध के प्रमुख माध्यम के रूप में प्रयोग किया — जैसे चंपारण, खेड़ा, असहयोग, नमक सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन। यह समझा जाएगा कि इन आंदोलनों में अहिंसा किस प्रकार एक जनचेतना में परिवर्तित हुई और कैसे इसने राजनीतिक रणनीति को नैतिक ऊँचाई दी।
3. गांधीजी के अहिंसा सिद्धांत पर बौद्ध, जैन और वैदिक प्रभावों का परीक्षण करना: यह उद्देश्य गांधीजी के चिंतन पर भारतीय धार्मिक परंपराओं के प्रभाव को रेखांकित करता है। जैन धर्म का अहिंसा व्रत, बौद्ध धर्म की करुणा और मैत्री, और वैदिक चिंतन में सत्य, यज्ञ और तप का जो स्वरूप है, वह गांधीजी के अहिंसात्मक दर्शन में कैसे समाहित हुआ — इसका विवेचन इस बिंदु में किया जाएगा।
4. अहिंसा को राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक उपकरण के रूप में समझना: गांधीजी ने अहिंसा को केवल राजनीतिक क्रांति का साधन नहीं माना, बल्कि उसे व्यक्ति और समाज के नैतिक पुनर्निर्माण का माध्यम भी समझा। इस उद्देश्य के अंतर्गत यह विश्लेषण किया जाएगा कि गांधी के लिए अहिंसा एक संपूर्ण जीवन-दृष्टि थी — जिसमें सत्य, आत्मबल, संयम, समर्पण और नैतिक साहस निहित थे।
5. आधुनिक युग में गांधीवादी अहिंसा की प्रासंगिकता का मूल्यांकन करना: 21वीं सदी की सामाजिक, राजनीतिक और वैश्विक चुनौतियाँ — जैसे धार्मिक उग्रता, जातीय संघर्ष, पर्यावरणीय संकट, और लोकतांत्रिक पतन — के संदर्भ में गांधीवादी अहिंसा की भूमिका को पुनः जांचना इस उद्देश्य का मुख्य केंद्र बिंदु है। यह उद्देश्य यह स्पष्ट करेगा कि क्या आज भी गांधीजी की अहिंसा एक प्रभावी और आवश्यक वैकल्पिक दृष्टिकोण बन सकती है।
इन सभी उद्देश्यों के माध्यम से यह शोध गांधीजी के अहिंसा-दर्शन को केवल ऐतिहासिक संदर्भ तक सीमित नहीं रखेगा, बल्कि उसके समकालीन अर्थ और उपयोगिता की भी गहराई से पड़ताल करेगा।



3. शोध पद्धति (Research Methodology)
यह शोध गुणात्मक (Qualitative) और ऐतिहासिक-समीक्षात्मक (Historical-Analytical) पद्धति पर आधारित है, जिसका मुख्य उद्देश्य महात्मा गांधी के अहिंसा-दर्शन का गहराई से अध्ययन करना और उसके ऐतिहासिक प्रयोगों तथा वैचारिक प्रभावों का मूल्यांकन करना है। अध्ययन की प्रकृति दार्शनिक और वैचारिक विश्लेषणात्मक होने के कारण इसमें संख्यात्मक डेटा या सांख्यिकीय विश्लेषण के बजाय सामग्री के विवेचनात्मक अध्ययन को प्राथमिकता दी गई है।
1. प्राथमिक स्रोतों का उपयोग (Primary Sources):
शोध में महात्मा गांधी द्वारा लिखित मूल ग्रंथों और पत्रिकाओं का विस्तृत विश्लेषण किया गया है, जिनमें प्रमुख हैं:
• हिन्द स्वराज (1909) — गांधीजी का राजनीतिक-दार्शनिक घोषणापत्र
• सत्य के प्रयोग (Autobiography) — गांधीजी के आत्मकथात्मक अनुभव
• यंग इंडिया, हरिजन, तथा नवजीवन — गांधीजी द्वारा संपादित समाचार-पत्र जिनमें उनके विचार और सार्वजनिक दृष्टिकोण प्रकाशित हुए
इन प्राथमिक स्रोतों से गांधीजी के अहिंसा-संबंधी विचारों का प्रत्यक्ष अध्ययन किया गया है, जिससे उनके दर्शन की मौलिकता और प्रयोगात्मक स्वरूप का विश्लेषण संभव हुआ।
2. द्वितीयक स्रोतों का विश्लेषण (Secondary Sources):
शोध में उन भारतीय और विदेशी विद्वानों के लेख, आलोचनात्मक ग्रंथ, शोध-पत्र और समीक्षाएं शामिल की गई हैं जिन्होंने गांधीजी के अहिंसा-दर्शन पर गंभीर चिंतन किया है। इनमें डेनिस डाल्टन, एंथनी पारेलेल, रामचंद्र गुहा, रजनी कोठारी, धीरेंद्र मोहन दत्त आदि जैसे विचारकों के ग्रंथों को सम्मिलित किया गया है।
साथ ही, शोध में विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं पर केंद्रित ग्रंथों एवं दस्तावेज़ों का उपयोग करके यह समझने का प्रयास किया गया है कि अहिंसा किस प्रकार से विभिन्न राजनीतिक आंदोलनों में व्यवहारिक स्तर पर प्रयुक्त हुई।
3. ऐतिहासिक घटनाओं का मूल्यांकन (Evaluation of Movements):
शोध में विशेष रूप से निम्नलिखित राष्ट्रीय आंदोलनों का विश्लेषण किया गया है, जिनमें गांधीजी ने अहिंसा को सक्रिय और सृजनात्मक तरीके से लागू किया:
• चंपारण सत्याग्रह (1917): किसानों के अधिकारों की रक्षा हेतु अहिंसात्मक प्रतिरोध का पहला प्रयोग।
• खेड़ा आंदोलन (1918): कर-माफी की माँग के लिए गांधीजी की नेतृत्व में अहिंसा का क्षेत्रीय प्रयोग।
• खिलाफत आंदोलन (1919–20): हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयास में अहिंसा की प्रयोगशाला।
• असहयोग आंदोलन (1920–22): अंग्रेजी शासन की वैधता को चुनौती देने का अहिंसक अभियान।
• नमक सत्याग्रह (1930): ब्रिटिश कानून के विरुद्ध सविनय अवज्ञा का प्रतीकात्मक और जन-संपर्क आंदोलन।
• भारत छोड़ो आंदोलन (1942): स्वतंत्रता की अंतिम लड़ाई जिसमें गांधीजी का ‘करो या मरो’ का नारा अहिंसा के चरम प्रयोग के रूप में देखा गया।
इन आंदोलनों की घटनात्मक समीक्षा के माध्यम से यह अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि किस प्रकार गांधीजी ने अहिंसा को एक सैद्धांतिक विचार से निकालकर जनचेतना और संगठनात्मक व्यवहार का आधार बनाया।
4. पद्धतिगत दृष्टिकोण की विशेषताएँ:
• पाठ विश्लेषण (Textual Analysis): गांधीजी के लेखन और भाषणों का सन्दर्भानुसार विवेचन।
• तुलनात्मक अध्ययन: गांधीजी के विचारों की तुलना जैन, बौद्ध और ईसाई नैतिक परंपराओं से।
• प्रासंगिकता विश्लेषण: 21वीं सदी की चुनौतियों में गांधी के अहिंसा-दर्शन की उपयोगिता का परीक्षण।
इस शोध पद्धति ने यह सुनिश्चित किया है कि गांधीजी के अहिंसा-दर्शन को केवल एक वैचारिक सिद्धांत के रूप में नहीं, बल्कि उसके ऐतिहासिक प्रयोग, सामाजिक प्रभाव और दार्शनिक प्रासंगिकता के आलोक में समग्र रूप से प्रस्तुत किया जाए।

4. अहिंसा की वैचारिक पृष्ठभूमि
महात्मा गांधी के लिए अहिंसा मात्र एक नकारात्मक संकल्प नहीं थी, जिसमें व्यक्ति हिंसा से स्वयं को दूर रखता है, बल्कि यह एक सक्रिय नैतिक और आध्यात्मिक जीवनशैली थी। उनकी दृष्टि में अहिंसा सत्य, प्रेम, आत्मानुशासन और करुणा का समुच्चय थी। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा —
"अहिंसा केवल किसी को शारीरिक रूप से क्षति न पहुँचाने का नाम नहीं है, बल्कि यह सभी प्राणियों के प्रति प्रेम, सहानुभूति और सहयोग की भावना है।"
गांधीजी की अहिंसा-दृष्टि का दर्शन भारतीय अध्यात्म की तीन प्रमुख धाराओं — वैदिक, जैन और बौद्ध परंपरा — से प्रभावित था, किन्तु उन्होंने इन तत्वों को अपने अनुभव और प्रयोग के माध्यम से एक नवीन, सक्रिय और जनसुलभ रूप प्रदान किया।
1. वैदिक परंपरा और अहिंसा
वैदिक ऋचाओं और उपनिषदों में 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' जैसी कामनाएँ दर्शाती हैं कि अहिंसा भारतीय चिंतन की मूल आत्मा रही है। महाभारत जैसे ग्रंथों में भी कहा गया है —
"अहिंसा परमोधर्मः धर्म हिंसा तथैव च।"
यहां अहिंसा को न केवल धर्म कहा गया, बल्कि उसकी परिभाषा व्यापक नैतिकता के रूप में की गई।
2. जैन धर्म में अहिंसा का स्थान
गांधीजी पर जैन धर्म का विशेष प्रभाव उनके पोरबंदर और राजकोट के बचपन में पड़ चुका था। जैन दर्शन में अहिंसा न केवल काया से, बल्कि वचन और मन से भी अपेक्षित है। यह अहिंसा केवल मानवों तक सीमित नहीं, बल्कि सभी जीवों के प्रति समान करुणा की माँग करती है।
गांधीजी ने जैन धर्म से अपरिग्रह, संयम, तप, और सर्वभूतहित जैसे तत्वों को आत्मसात किया।


3. बौद्ध धर्म और करुणा का सिद्धांत
गौतम बुद्ध के चिंतन में 'अहिंसा' केवल हिंसा का विरोध नहीं, बल्कि 'मैत्री', 'करुणा', 'मुदिता' और 'उपेक्षा' जैसी चार ब्रह्मविहार भावनाओं का सक्रिय अभ्यास है। बुद्ध के ‘मध्यम मार्ग’ ने गांधीजी को संतुलन और विवेकपूर्ण आत्मबल की दिशा में मार्गदर्शन दिया।
गांधीजी के लिए करुणा केवल भावना नहीं थी, बल्कि व्यवहार में उतरी हुई नैतिकता थी।
4. ईसाई और इस्लामी नैतिकता का प्रभाव
गांधीजी ने बाइबल और कुरान का भी अध्ययन किया। ईसा मसीह की ‘दूसरा गाल आगे करने’ की नीति और प्रेम के सार्वभौमिक सिद्धांत ने उन्हें यह सिखाया कि सत्य के लिए बलिदान अहिंसा का ही रूप है। पैग़म्बर मोहम्मद की क्षमाशीलता और न्यायप्रियता ने भी गांधीजी के दृष्टिकोण को व्यापक बनाया।
5. सत्य और अहिंसा का अभिन्न संबंध
गांधीजी के अनुसार, "सत्य और अहिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।"
उन्होंने सत्य को ईश्वर माना — "सत्य ही ईश्वर है" — और अहिंसा को उस ईश्वर तक पहुँचने का एकमात्र साधन।
उनकी मान्यता थी कि यदि कोई व्यक्ति अहिंसा का मार्ग त्यागता है, तो वह न केवल ईश्वर से दूर जाता है, बल्कि आत्मा की गरिमा को भी खो बैठता है।
6. आत्मबल और आत्मशुद्धि
गांधीजी की अहिंसा शक्ति का रूप थी — जिसमें कोई तलवार नहीं, परंतु सत्य का साहस था; कोई शत्रुता नहीं, परंतु अन्याय के प्रति असहमति थी। उनका ‘सत्याग्रह’ इसी अहिंसा पर आधारित था। उनके अनुसार:
"अहिंसा का अभ्यास व्यक्ति को भीतर से शुद्ध करता है और उसके शत्रु को भी आत्मशुद्धि के मार्ग पर लाता है।"
इस तरह गांधीजी की अहिंसा कोई स्थूल और सीमित अवधारणा नहीं थी, बल्कि यह एक जीवन-दर्शन था जो प्रेम, करुणा, साहस, आत्मसंयम और नैतिक आग्रह से ओतप्रोत था। उन्होंने न केवल इस दर्शन को आत्मसात किया, बल्कि उसे स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक सुधार के लिए व्यावहारिक धरातल पर सफलतापूर्वक लागू भी किया।
इस वैचारिक पृष्ठभूमि ने गांधीजी के संपूर्ण जीवन और कार्य को अर्थ, उद्देश्य और दिशा दी, जिससे अहिंसा एक दर्शन से आंदोलन और व्यक्ति से जनचेतना में रूपांतरित हो सकी।

5. स्वतंत्रता संग्राम में अहिंसा का प्रयोग
महात्मा गांधी ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को केवल राजनीतिक विरोध की प्रक्रिया नहीं रहने दी, बल्कि उसे नैतिकता, जनसहभागिता और आत्मबल पर आधारित एक जनक्रांति का रूप दे दिया। उन्होंने यह स्थापित किया कि स्वतंत्रता प्राप्ति का मार्ग हिंसा नहीं, बल्कि आत्मानुशासन, सत्य और करुणा होना चाहिए। उन्होंने भारतीय जनमानस को यह सिखाया कि अन्याय का प्रतिकार तलवार से नहीं, बल्कि अहिंसक आत्मबल और नैतिक साहस से भी किया जा सकता है। उनके नेतृत्व में हुए अनेक आंदोलनों में अहिंसा केवल एक सैद्धांतिक विचार नहीं रही, बल्कि व्यवहार में सिद्ध और सफल रणनीति के रूप में उभरी। गांधीजी का पहला बड़ा प्रयोग चंपारण सत्याग्रह (1917) था, जिसमें उन्होंने नील की खेती से पीड़ित किसानों को संगठित कर अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध अहिंसक सत्याग्रह का मार्ग अपनाया। इसके तुरंत बाद खेड़ा आंदोलन (1918) में, जब सूखे से ग्रसित किसानों से कर वसूली की जा रही थी, तब गांधीजी ने शांतिपूर्ण असहयोग का आह्वान किया और अंततः सरकार को कर माफ करना पड़ा। इसके पश्चात खिलाफत आंदोलन (1919–20) और असहयोग आंदोलन (1920–22) जैसे आंदोलनों में उन्होंने सम्पूर्ण देश को एकजुट किया और सरकारी संस्थानों, विदेशी वस्त्रों, अदालतों और नौकरियों के बहिष्कार का रास्ता अपनाया। हालांकि चौरी-चौरा हिंसा के कारण उन्होंने आंदोलन वापस ले लिया, परंतु यह उनके नैतिक आग्रह और अहिंसा के प्रति अडिग निष्ठा का प्रमाण था।
1930 में नमक सत्याग्रह के रूप में गांधीजी ने अहिंसा को और अधिक जनसुलभ और प्रतीकात्मक बनाया। उन्होंने दांडी यात्रा के माध्यम से नमक कानून को तोड़ा और जनता को साधारण दिखने वाले मुद्दों के पीछे छिपे औपनिवेशिक अन्याय के प्रति जागरूक किया। यह आंदोलन देशव्यापी जनजागरण का रूप ले चुका था और अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी भारत के संघर्ष को नई पहचान मिली। अंततः 1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन' के रूप में गांधीजी का अंतिम और निर्णायक अभियान शुरू हुआ। यद्यपि इसमें हिंसा की कुछ घटनाएँ हुईं, परंतु गांधीजी और उनके अनुयायियों ने अपने स्तर पर अहिंसा को दृढ़तापूर्वक बनाए रखा।
इन सभी आंदोलनों में अहिंसा केवल एक नीति नहीं रही, बल्कि जनता को सक्रिय करने, अत्याचार के विरुद्ध नैतिक दबाव बनाने और सामूहिक आत्मबल खड़ा करने का एक प्रभावी उपाय बन गई। गांधीजी ने अहिंसा को व्यावहारिक, जनहितकारी और वैश्विक दृष्टिकोण के स्तर पर सिद्ध कर दिखाया कि सच्चे परिवर्तन के लिए केवल शक्ति नहीं, बल्कि आस्था, धैर्य और प्रेम की आवश्यकता होती है। उनका यह प्रयोग भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई ऊँचाई देता है और यह दर्शाता है कि नैतिक साधनों से भी साम्राज्यवादी ताकतों को पराजित किया जा सकता है।

6. गांधीजी का अहिंसा-दर्शन: व्यावहारिक व नैतिक आयाम
महात्मा गांधी का अहिंसा-दर्शन केवल राजनीतिक स्वतंत्रता की रणनीति नहीं था, बल्कि यह एक व्यापक नैतिक, आध्यात्मिक और जीवन-दृष्टि का नाम था। उनके अनुसार अहिंसा कोई निर्बलता या कायरता नहीं, बल्कि आत्मबल, धैर्य और आत्मसंयम का प्रतीक है। उन्होंने स्पष्ट कहा — "अहिंसा कायर का मार्ग नहीं है; यह वीरों की नीति है।" उनके चिंतन में अहिंसा केवल हिंसा का अभाव नहीं थी, बल्कि यह सत्य, प्रेम, करुणा, क्षमा और अनुशासन का सक्रिय और संकल्पशील मार्ग था।
गांधीजी के लिए अहिंसा एक ऐसी शक्ति थी जो व्यक्ति को आत्मशुद्धि के साथ-साथ समाज और राष्ट्र के निर्माण की दिशा में प्रेरित करती है। उन्होंने इस दर्शन को व्यावहारिक रूप देने के लिए कुछ प्रमुख अवधारणाएँ प्रस्तुत कीं — जैसे ‘सत्याग्रह’, ‘अपरिग्रह’, ‘स्वदेशी’, और ‘नैतिक आत्मनिर्भरता’। ‘सत्याग्रह’ उनके अहिंसक संघर्ष का आधार था, जिसका उद्देश्य अन्याय का प्रतिरोध करना था, परंतु शत्रु को शारीरिक या मानसिक रूप से क्षति पहुँचाने के बजाय उसके अंतर्मन को झ झकझोरना था। उनका मानना था कि अहिंसा का प्रयोग केवल व्यक्तिगत जीवन तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि यह सामाजिक, राजनीतिक और वैश्विक व्यवहार में भी स्थान पाए। वे यह भी कहते थे कि यदि कोई अन्याय के सामने मौन रहता है या उसकी अनदेखी करता है, तो वह भी अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा का भागीदार है। इसलिए अहिंसा को निष्क्रियता नहीं, बल्कि सक्रिय नैतिक प्रतिरोध की रणनीति के रूप में देखा जाना चाहिए।
गांधीजी का अहिंसा- दर्शन केवल सत्ता परिवर्तन का साधन नहीं था, बल्कि मानवता के नैतिक उत्थान का उपकरण था। यही कारण था कि उन्होंने छुआछूत, शराब की लत, स्त्री-शोषण, अशिक्षा, और मजदूरों के शोषण जैसी सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध भी अपने अहिंसात्मक दृष्टिकोण के साथ संगठित संघर्ष किया। हरिजनों के उत्थान के लिए उन्होंने 'हरिजन सेवा संघ' की स्थापना की, महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया, और ग्रामीण भारत के आत्मनिर्भर निर्माण हेतु 'चरखा' और 'खादी' को प्रतीक बनाया।
उनका मानना था कि जब तक समाज के अंतिम व्यक्ति तक नैतिक और आर्थिक स्वतंत्रता नहीं पहुँचेगी, तब तक राजनीतिक स्वतंत्रता अधूरी रहेगी। इसलिए उन्होंने ‘स्वराज’ की परिभाषा को केवल ब्रिटिश सत्ता की समाप्ति से जोड़कर नहीं देखा, बल्कि उसे एक नैतिक और मानवीय समाज के निर्माण से जोड़ा।
इस प्रकार गांधीजी का अहिंसा-दर्शन एक बहुआयामी दृष्टिकोण था, जिसमें राजनीतिक संघर्ष, सामाजिक सुधार और आत्मिक साधना — तीनों समाहित थे। उन्होंने विश्व को यह सिखाया कि हिंसा के चक्रव्यूह को केवल प्रेम, आत्मबल और संयम से ही तोड़ा जा सकता है। उनका यह दर्शन आज भी सामाजिक सौहार्द, सहिष्णुता और नैतिक राजनीति की ओर लौटने के लिए एक प्रामाणिक मार्गदर्शक के रूप में प्रासंगिक है।

7. वैश्विक प्रभाव और आधुनिक प्रासंगिकता
महात्मा गांधी का अहिंसा-दर्शन केवल भारत की आज़ादी का नैतिक आधार नहीं था, बल्कि वह एक वैश्विक विचारधारा बन गया जिसने दुनिया भर के आंदोलनों, नेताओं और जनचेतना को प्रभावित किया। गांधीजी की सोच और उनके प्रयोगों ने यह सिद्ध कर दिया कि अहिंसा एक सार्वभौमिक सिद्धांत है, जो जाति, धर्म, राष्ट्र और संस्कृति की सीमाओं को पार कर संपूर्ण मानवता की मुक्ति का माध्यम बन सकता है।
गांधीजी के प्रभाव से प्रेरणा लेकर डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अमेरिका में अश्वेतों के नागरिक अधिकार आंदोलन को अहिंसक संघर्ष के रूप में संगठित किया। किंग ने स्वीकार किया कि "गांधी से हमने यह सीखा कि अन्याय का विरोध बिना नफरत के भी किया जा सकता है।" इसी प्रकार नेल्सन मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के विरुद्ध अपने दीर्घकालिक संघर्ष में गांधीवादी तरीकों को नैतिक बल प्रदान करने का माध्यम बनाया। आंग सान सू ची ने म्यांमार में सैन्य दमन और लोकतंत्र की पुनर्स्थापना के संघर्ष में गांधी के सत्य और अहिंसा के मार्ग को अपने आंदोलन की आत्मा माना।
आज के समय में भी, जब दुनिया भर में हिंसा, युद्ध, आतंकवाद और मानवाधिकार उल्लंघनों की घटनाएँ बढ़ रही हैं, गांधीजी की अहिंसा की विचारधारा पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गई है। आधुनिक युग में जहाँ असहमति को दबाने की प्रवृत्ति बढ़ी है, वहाँ गांधीजी के शांतिपूर्ण प्रतिरोध के सिद्धांत — सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा और नैतिक विरोध — लोकतंत्र के रक्षक के रूप में सामने आते हैं। भारत में जब-जब नागरिक स्वतंत्रता, संविधानिक अधिकारों, या सामाजिक न्याय के प्रश्न उठते हैं, तब-तब गांधीवादी विचारधारा को नया जीवन मिलता है — चाहे वह चिपको आंदोलन हो, नर्मदा बचाओ आंदोलन, अन्ना हजारे का जन लोकपाल आंदोलन, या शांतिपूर्ण छात्र आंदोलन।
पर्यावरणीय संकट, आर्थिक विषमता, सांप्रदायिक तनाव, और राजनीतिक ध्रुवीकरण जैसे समकालीन मुद्दों के समाधान के लिए भी गांधी का विचार मार्गदर्शन करता है। उनका स्वदेशी, अपरिग्रह और पर्यावरण-संवेदनशील दृष्टिकोण आज की विकास नीतियों की आलोचना और सुधार के लिए आवश्यक बन गया है।
विश्व राजनीति में जहाँ सैन्य शक्ति और प्रभुत्व की होड़ बढ़ती जा रही है, वहाँ गांधीजी की अहिंसा मानवता के लिए एक नैतिक विकल्प प्रस्तुत करती है — ऐसा विकल्प जो युद्ध नहीं, संवाद की संस्कृति को बढ़ावा देता है; प्रतिशोध नहीं, सहअस्तित्व की भावना को सशक्त करता है।
इस प्रकार गांधीजी का अहिंसा-दर्शन आज भी केवल इतिहास का हिस्सा नहीं है, बल्कि वह एक जीवंत परंपरा है — एक ऐसा सिद्धांत जो हर उस व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के लिए मार्गदर्शक बन सकता है, जो सत्ता, हिंसा या दमन की जगह पर नैतिक साहस, सत्य और प्रेम की शक्ति में विश्वास करता है।

8. निष्कर्ष (Conclusion)
महात्मा गांधी का अहिंसा-दर्शन न केवल भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की आत्मा रहा है, बल्कि यह मानवता के इतिहास में नैतिक संघर्ष और शांतिपूर्ण सामाजिक परिवर्तन का एक अद्वितीय उदाहरण भी है। यह दर्शन भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं — जैसे वैदिक अहिंसा, जैन संयम और बौद्ध करुणा — की गहराई से प्रेरित होकर एक आधुनिक और व्यावहारिक रूप में परिणत हुआ। गांधीजी ने इसे केवल एक राजनीतिक औजार के रूप में नहीं, बल्कि आत्मिक अनुशासन, सामाजिक न्याय और व्यक्तिगत सत्य की साधना के रूप में प्रस्तुत किया। उनके अनुसार अहिंसा केवल हिंसा का त्याग नहीं है, बल्कि यह प्रेम, सहिष्णुता, क्षमा और सक्रिय नैतिक प्रतिरोध का समन्वय है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि आत्मबल और नैतिक साहस की शक्ति से एक सम्राज्य को चुनौती दी जा सकती है, और वह भी बिना रक्तपात या हथियार उठाए। उनका संपूर्ण जीवन इस बात का प्रमाण है कि असहमति, विरोध और संघर्ष भी गरिमा और करुणा के साथ किए जा सकते हैं।
इतिहास गवाह है कि गांधीजी के इस दर्शन ने केवल भारत को औपनिवेशिक शासन से मुक्ति नहीं दिलाई, बल्कि दुनिया भर के अन्य संघर्षों को भी नैतिक शक्ति और दिशा प्रदान की। यह दर्शन मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला, आंग सान सू ची और दलाई लामा जैसे नेताओं की प्रेरणा बना, जिन्होंने अहिंसा के पथ पर चलकर अपने समाजों में न्याय और शांति की स्थापना की।
आज जब विश्व भर में हिंसा, असहिष्णुता, सामाजिक विषमता और राजनीतिक कट्टरता जैसी चुनौतियाँ बढ़ रही हैं, तब गांधीजी का अहिंसा-दर्शन केवल प्रासंगिक नहीं, बल्कि अनिवार्य प्रतीत होता है। यह दर्शन हमें सिखाता है कि कोई भी परिवर्तन स्थायी तभी हो सकता है जब वह प्रेम, न्याय और आत्मशक्ति की भूमि पर आधारित हो।
इसलिए, गांधीजी की अहिंसा कोई अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य का मार्गदर्शक सिद्धांत है — एक ऐसा पथ जो न केवल सामाजिक न्याय को जन्म देता है, बल्कि व्यक्ति और समाज दोनों को भीतर से शुद्ध करता है और विश्व को शांति, समरसता और सह-अस्तित्व की ओर अग्रसर करता है।

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Keywords .
Field Arts
Published In Volume 16, Issue 2, July-December 2025
Published On 2025-07-04
Cite This महात्मा गांधी के अहिंसा के दर्शन का ऐतिहासिक अध्ययन - Aravind - IJAIDR Volume 16, Issue 2, July-December 2025.

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